भारत में त्योहारों का अपना ही मज़ा है, खासकर गणेश त्यौहार, जो हर साल बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर बड़ी चीजें होती हैं—गणेश की मूर्तियां, पूजा-पाठ, मिल जुल कर त्योहार मनाना। मगर इन मूर्तियों का एक बड़ा नुकसान भी है, क्योंकि अक्सर इन मूर्तियों को बनाना और विसर्जित करना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है। गुजरात के साबरकांठा जिले के कुकड़िया गांव की, जहां महिलाओं का समूह पर्यावरण के अनुकूल मिट्टी से गणेश की मूर्तियां बना रहा है। यह कदम पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने का भी सच्चा प्रयास है। आइए, जानते हैं इस अभियान के बारे में।
पर्यावरण के लिए अच्छा, इको-फ्रेंडली गणेश मूर्तियों का निर्माण
साबरकांठा के कुकड़िया गांव की महिलाओं ने मिलकर पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से मिट्टी से गणेश मूर्तियों का निर्माण करना शुरू किया है। इन मूर्तियों को बनाने का मकसद है—प्रकृति का सम्मान करना और प्रदूषण से बचाव करना। इन मूर्तियों का खास बात यह है कि इन्हें प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) जैसी खतरनाक सामग्रियों से नहीं बनाया जाता, जो पानी में घुलती नहीं हैं। पीओपी वाली मूर्तियों को विसर्जित करने के बाद भी वे पानी में घुलती नहीं हैं और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती हैं। जबकि मिट्टी की मूर्तियों को विसर्जित करने के बाद वे प्राकृतिक रूप से पानी में घुल जाती हैं, जिससे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होता।
“हम अपनी मिट्टी से गणेश की मूर्तियां बना रहे हैं ताकि पर्यावरण सुरक्षित रहे। ये मूर्तियां घर पर भी विसर्जित की जा सकती हैं, नदी या तालाब जाने की जरूरत नहीं होती,” – नयना बेन प्रजापति, सदस्या, सखी मंडल।
सखी मंडल की सदस्य नयना बेन प्रजापति ने यह बात कही। उनका कहना है कि इस तरह की मूर्तियों का खास फायदा यह है कि इन्हें आराम से घर पर भी पूजा के बाद विसर्जित किया जा सकता है। इससे न तो जल स्रोत प्रदूषित होते हैं और न ही किसी नदी या तालाब में बड़ी संख्या में मूर्ति विसर्जन से पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। नयना ने कहा कि वे सब मिलकर 1 से 3 फीट तक की मूर्तियां बना रहे हैं, जो पूजा के लिहाज से उपयुक्त हैं।
सिद्ध अनुभव और आत्मनिर्भरता का प्रयास
गांव की महिलाओं ने यह भी बताया कि तीन साल पहले ही उन्होंने यह काम शुरू किया था। इस दौरान, गुजरात सरकार के महिला सशक्तिकरण योजना के तहत उन्हें प्रशिक्षण मिला था। शुरुआत में लगभग 30 महिलाएं इसमें भागी थीं, पर अब लगभग 10 महिलाएं ही इस कार्य में लगी हैं। इन महिलाओं का उद्देश्य है—शिक्षा, प्रशिक्षण और उद्योग को साथ लेकर काम करना, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत हो सके।
“इस काम से हम न केवल पर्यावरण की रक्षा कर रहे हैं, बल्कि अपने परिवार का खर्च भी चला रहे हैं। हमें इसमें बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि इससे हम आत्मनिर्भर भी बन रही हैं,” – जागृति प्रजापति, एक अन्य सदस्य।
इन महिलाओं ने मिट्टी की मूर्तियों को बनाना, उन्हें सजाना और ग्राहक तक पहुंचाना सीखा है। इस नए बिजनेस से वे न केवल अपने घर का खर्च चला रही हैं, बल्कि आसपास के इलाकों में भी इस अभियान को बढ़ावा दे रही हैं। इससे स्थानीय पर्यावरण संरक्षण में भी मदद मिल रही है, क्योंकि अब बच्चों और वयस्कों दोनों को पर्यावरण के प्रति जागरूकता मिल रही है।
बढ़ते ट्रेंड और भविष्य की योजना
आज, कुकड़िया गांव की इन महिलाओं की बनाई गई मिट्टी की मूर्तियां आसपास के क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध हो गई हैं। लोग इन्हें पूजा के दौरान खरीदते हैं, और घर पर ही विसर्जित कर देते हैं। इससे यह प्रचार फैल रहा है कि पर्यावरण के अनुकूल त्योहार मनाना कितना आसान है। आगे चलकर, इन महिलाओं का सपना है कि यह अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा बन जाए और पूरे भारत में ऐसी मूर्तियों का चलन बढ़े।
कुकड़िया गांव के स्थानीय अधिकारी कहते हैं कि अगर यह मॉडल सफल रहा तो हम इसे पूरे राज्य और देश में फैलाएंगे, ताकि पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ लोगों की आर्थिक स्थिति भी मजबूत हो सके। इन महिलाओं को सरकारी योजनाओं से भी सहायता मिल रही है, जिससे उनका व्यवसाय और भी मजबूत हो सकता है।
“अगर हम सभी मिलकर पर्यावरण का ध्यान रखें, तो हमारी दुनिया ज्यादा सुंदर और स्वच्छ बनेगी। हमें इस पर ध्यान देना चाहिए,” – कलेक्टर।
आखिर में यही कहा जा सकता है कि इस तरह के प्रयास हमारे देश में त्योहारों को और भी अर्थपूर्ण बना रहे हैं। जब हम पर्यावरण का ख्याल रखते हुए त्योहार मनाते हैं, तो यह संदेश जाता है हर उस व्यक्ति तक, जो हमारी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करना चाहता है। हम सबको मिलकर ऐसी ही सोच और प्रयासों को बढ़ावा देना चाहिए ताकि हमारा भारत और अधिक सुंदर और स्वच्छ बन सके।
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